गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

"महाशिवरात्रि कि हार्दिक शुभकामनायें"


                                        ॐ नमोः शिवाय 


शिव पंचाक्षर स्त्रोत 


नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय:॥

मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे म काराय नम: शिवाय:॥

शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै शि काराय नम: शिवाय:॥

वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय
चंद्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै व काराय नम: शिवाय:॥

यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै य काराय नम: शिवाय:॥

पंचाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेत शिव सन्निधौ
शिवलोकं वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥

नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय|
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे "न" काराय नमः शिवायः॥

आज महाशिवरात्रि है। हिंदू धर्म में महाशिवरात्रि का विशेष धार्मिक महत्व है। यह पावन पर्व बड़ी ही श्रद्धा और उल्लास के साथ फागुन के महीने में मनाया जाता है।महाशिवरात्रि के विषय में मान्यता है कि इस दिन भगवान भोलेनाथ का अंश प्रत्येक शिवलिंग में पूरे दिन और रात मौजूद रहता है। इस दिन शिव जी की उपासना और पूजा करने से शिव जी जल्दी प्रसन्न होते हैं। शिवपुराण के अनुसार सृष्टि के निर्माण के समय महाशिवरात्रि की मध्यरात्रि में शिव का रूद्र रूप प्रकट हुआ था।"ज्योतिष शास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। अत: इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का महत्त्व है। महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक पर्व है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शान्ति एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।

गरुड़पुराण में इसकी गाथा है- आबू पर्वत पर निषादों का राजा सुन्दरसेनक था, जो एक दिन अपने कुत्ते के साथ शिकार खेलने गया। वह कोई पशु मार न सका और भूख-प्यास से व्याकुल वह गहन वन में तालाब के किनारे रात्रि भर जागता रहा। एक बिल्ब (बेल) के पेड़ के नीचे शिवलिंग था, अपने शरीर को आराम देने के लिए उसने अनजाने में शिवलिंग पर गिरी बिल्व पत्तियाँ नीचे उतार लीं। अपने पैरों की धूल को स्वच्छ करने के लिए उसने तालाब से जल लेकर छिड़का और ऐसा करने से जल की बूँदें शिवलिंग पर गिरीं, उसका एक तीर भी उसके हाथ से शिवलिंग पर गिरा और उसे उठाने में उसे शिवलिंग के समक्ष झुकना पड़ा। इस प्रकार उसने अनजाने में ही शिवलिंग को नहलाया, छुआ और उसकी पूजा की और रात्रि भर जागता रहा। दूसरे दिन वह अपने घर लौट आया और पत्नी द्वारा दिया गया भोजन किया। आगे चलकर जब वह मरा और यमदूतों ने उसे पकड़ा तो शिव के सेवकों ने उनसे युद्ध किया उसे उनसे छीन लिया। वह पाप रहित हो गया और कुत्ते के साथ शिव का सेवक बना। इस प्रकार उसने अज्ञान में ही पुण्यफल प्राप्त किया। यदि इस प्रकार कोई भी व्यक्ति ज्ञान में करे तो वह अक्षय पुण्यफल प्राप्त करता है।


आप सभी को महाशिवरात्रि कि हार्दिक शुभकामनायें। 

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

"भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन"



नैवाकृति: फलति नैव कुलं न शीलं विद्यापि नैव न च यत्नकृताऽपि सेवा।
भाग्यानि पूर्वतपसा खलु सञ्चितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षा:।।

अर्थ: मनुष्य की सुन्दर आकृति,उतम कुल, शील, विद्या, और खूब अच्छी तरह की हुई सेवा - ये सब कुछ फल नहीं देते किन्तु पूर्वजन्म के कर्म ही समय पर वृक्ष की तरह फल देते हैं।
टिप्पड़ी: हमारे वर्तमान जीवन में हमारे भूतकाल का भी पूरा पूरा प्रभाव और नियंत्रण रहता है क्योकि हमारा जो आज है वह गुजरे कल से ही पैदा होता है और जो आने वाला कल है वह  आज से यानि वर्तमान से पैदा होगा। यह जो कल, आज और कल वाली बात है यह काल गणना के अंतर्गत ही है वरना जो कालातीत स्थिति में है उनके लिए 'न भूतो न भविष्यति' के अनुसार न भूतकाल है न भविष्य काल है। उनके लिए सदा वर्तमान काल ही रहता है। शरीर  तल पर भूत भविष्य होते हैं, आत्मा के तल पर सदैव वर्तमान काल ही रहता है। हमें शरीर के तल पर भूतकाल और भविष्य काल का अनुभव होता है और हम समझते हैं की पूर्व काल की कर्मो के फल हम भोग रहें हैं। दरअसल सारे कर्मो का फल वर्तमान काल में ही फलित हो रहें हैं।  जो इस रहस्य को समझ लेते हैं वें भूत-भविष्य से परे उठकर सदैव वर्तमान में ही जीते हैं और कर्म और कर्मफल के तारतभय को जानते हैं।  कर्म से कर्मफल कभी जुदा नहीं होता क्योकि कर्मफल जिसे हम प्रारब्ध या भाग्य मानते हैं वह कर्म का ही अंतिम चरण होता है।पूर्व जन्मों में या पूर्व समय में हमने जो भी कर्म किये, उन्हीं सब का फल मिलकर तो भाग्य रूप में हमारे सामने आता है। भाग्य हमारे पूर्व कर्म संस्कारों का ही तो नाम है और इनके बारे में एकमात्र सच्चाई यही है कि वह बीत चुके हैं। अब उन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन अपने वर्तमान कर्म तो हम चुन ही सकते हैं। यह समझना कोई मुश्किल नहीं कि भूत पर वर्तमान हमेशा ही भारी रहेगा क्योंकि भूत तो जैसे का तैसा रहेगा लेकिन वर्तमान को हम अपनी इच्छा और अपनी हिम्मत से अपने अनुसार ढाल सकते हैं।कर्म से भाग्य बनता है या भाग्य से कर्म करते हैं लेकिन दोनों के बीच कोई खास रिश्ता जरूर होता है।
इसी बात को हम एक कहानी के माध्यम से समझते हैं  …… 
एक बार दो राज्यों के बीच युद्ध की तैयारियां चल रही थीं। दोनों के शासक एक प्रसिद्ध संत के भक्त थे। वे अपनी-अपनी विजय का आशीर्वाद मांगने के लिए अलग-अलग समय पर उनके पास पहुंचे। पहले शासक को आशीर्वाद देते हुए संत बोले, 'तुम्हारी विजय निश्चित है।' 

दूसरे शासक को उन्होंने कहा, 'तुम्हारी विजय संदिग्ध है।' दूसरा शासक संत की यह बात सुनकर चला आया किंतु उसने हार नहीं मानी और अपने सेनापति से कहा, 'हमें मेहनत और पुरुषार्थ पर विश्वास करना चाहिए। इसलिए हमें जोर-शोर से तैयारी करनी होगी। दिन-रात एक कर युद्ध की बारीकियां सीखनी होंगी। अपनी जान तक को झोंकने के लिए तैयार रहना होगा।' 

इधर पहले शासक की प्रसन्नता का ठिकाना न था। उसने अपनी विजय निश्चित जान अपना सारा ध्यान आमोद-प्रमोद व नृत्य-संगीत में लगा दिया। उसके सैनिक भी रंगरेलियां मनाने में लग गए। निश्चित दिन युद्ध आरंभ हो गया। जिस शासक को विजय का आशीर्वाद था, उसे कोई चिंता ही न थी। उसके सैनिकों ने भी युद्ध का अभ्यास नहीं किया था। दूसरी ओर जिस शासक की विजय संदिग्ध बताई गई थी, उसने व उसके सैनिकों ने दिन-रात एक कर युद्ध की अनेक बारीकियां जान ली थीं। उन्होंने युद्ध में इन्हीं बारीकियों का प्रयोग किया और कुछ ही देर बाद पहले शासक की सेना को परास्त कर दिया। 

अपनी हार पर पहला शासक बौखला गया और संत के पास जाकर बोला, 'महाराज, आपकी वाणी में कोई दम नहीं है। आप गलत भविष्यवाणी करते हैं।' उसकी बात सुनकर संत मुस्कराते हुए बोले, 'पुत्र, इतना बौखलाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी विजय निश्चित थी किंतु उसके लिए मेहनत और पुरुषार्थ भी तो जरूरी था। भाग्य भी हमेशा कर्मरत और पुरुषार्थी मनुष्यों का साथ देता है और उसने दिया भी है तभी तो वह शासक जीत गया जिसकी पराजय निश्चित थी।' संत की बात सुनकर पराजित शासक लज्जित हो गया और संत से क्षमा मांगकर वापस चला आया। 

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

"सब्र का फल मीठा होता है।"






निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः स्थिरा भवतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

"नीति में निपुण मनुष्य चाहे निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आयें या इच्छानुसार चली जायें, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं॥"

कहने का तात्पर्य यह है की सत्य, न्याय और धर्म के मार्ग पर चलने के लिए धैर्य धारण  अनिवार्य रूप से जरूरी है क्योकि इस मार्ग पर चलने वाले को पग-पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और सफलतापूर्वक सामना करने के लिए धैर्य का होना नितांत आवश्यकता होता है। अगर धैर्य टूट जाए तो व्यक्ति एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकेगा। धैर्य की  मजबूत रस्सी पकड़ कर ही व्यक्ति अपनी मंजिल तक पहुँच सकता है। धैर्य धारण करना तब सरल और सम्भव होता है जब एक तो व्यक्ति यह विवेक रखता हो कि इस न्याय मार्ग पर चलने का परिणाम निश्चित रूप से शुभ और मंगलकारी ही होगा और दूसरे, उसमे साहस भी हो कि न्याय युक्त मार्ग पर चलते हुए जो भी कठिनाइयां और बढ़ाएं सामने आए, बिना विचलित हुए उनका डट कर सामना कर  सके। यह ध्रुव सत्य है कि धैर्य धारण करने वाले की अंत में विजय होती ही है। कहा  भी गया है की "सब्र का फल मीठा होता है।" 
                  सब्र यानि धैर्य धारण करने से इष्ट कार्य सफल होता है, मनोवांछित लक्ष्य पूर्ण होता है। धर्य धारण करने से मन स्थिर रहता है जिससे कार्य को दक्षता पूर्वक करने और सम्पूर्ण होने तक करने की  प्रेरणा और शक्ति मिलती है। जो धैर्य धारण नहीं कर  पाते  वे किसी भी कार्य को पूरा नहीं कर पाते और बीच में ही निराश होकर कार्य को अधूरा छोड़ देते हैं। इसी संदर्भ में एक कहानी पर मनन करते हैं  …… 
एक व्यक्ति ने ठेकदार को ट्यूबवेल खोदने का ठेका दिया। अनुमान था कि लगभग १०० फुट खोदने पर पानी निकल आएगा पर १०५ फुट खोदने पर भी पानी नहीं निकला तो उस व्यक्ति का  धैर्य टूट गया। उसने ठीकेदार से दूसरी जगह खुदाई कराए,दूसरी जगह पर भी १०० फुट खोदने पर पानी नही निकला तो तीसरी जगह खुदाई शुरू करा दी। तीसरी जगह  ९० फुट  खुदाई हो चुकी थी तब उस व्यक्ति का एक मित्र वहाँ पहुंचा और बोला पानी निकला या नहीं। वह व्यक्ति बोला-कहाँ यार तीन तीन जगह खुदाई करवा ली पर पानी नहीं निकला। इस पर मित्र बोला-भले आदमी, धैर्य रख कर एक ही जगह पर खुदाई जारी  रखता तो पानी कभी का निकल आता। तीन जगह कि मेहनत एक ही जगह पर होती तो पानी अवश्य हीं निकल आता। अतः कार्य पूरा तक  धैर्य का साथ नही छोड़ना चाहिए।  



शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

मसीहा



झूठ सच्चाई का हिस्सा हो गया
इक तरह से ये भी अच्छा हो गया

उस ने इक जादू भरी तक़रीर की
क़ौम का नुक़सान पूरा हो गया

शहर में दो-चार कम्बल बाँट कर
वो समझता है मसीहा हो गया

ये तेरी आवाज़ नम क्यूँ हो गई
ग़म-ज़दा मैं था तुझे क्या हो गया

बे-वफाई आ गई चौपाल तक
गाँव लेकिन शहर जैसा हो गया

सच बहुत सजता था मेरी ज़ात पर
आज ये कपड़ा भी छोटा हो गया
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झूठ में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है


आभार :शकील जमाली

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

"परमात्मा के चरणो में पूर्ण समर्पण"




समर्पण के बिना स्वतंत्रता उपलब्ध नही हो सकती। जब तक परमात्मा के प्रति हम पूर्ण रूप से समर्पित नहीं होते, 'मैं' के अहंकार को नही छोड़ते तब तक हम चारो तरफ से बन्धनों  में जकड़े रहेंगे।  इस मैं का अहंकार छोड़ कर अपने आपको प्रभु-अपर्ण करके ही हम मुक्त हो सकते हैं। 'मैं' को हम परमात्मा के चरणो में चढ़ाकर, 'मैं', नहीं  'तू' कहना और समझना शुरू कर  दें। मैं की  जगह तू को लेट ही दुखों का बोझ मिट जाता है, छूट जाता है। हमेशा उस निरंजन, निराकार, निर्विकार, अनन्त , महान  और दिव्य परमात्मा के साथ रहें, उसके साथ होने का अनुभव करें और पूरी पूर्णता के साथ करें। उस अदृस्य और असीम की  ध्वनि कानों से सुनने कि कोशिश करते रहें।  धीरे-धीरे इस प्रकार के सतत प्रयास से हमें दुःख,शोक और अज्ञान के सभी बंधनों से मुक्त हो कर आनन्द  को उपलब्ध हो जायेंगे। " श्री हरि शरणागति ही सब शुभ अशुभ कर्म बन्धनों से मुक्त होने का एक मात्र मार्ग है। जो शरणागत हुए वे ही तर गए। भगवान् ने उन्हें तारा,उन्हें तारते हुए भगवान् ने उनके अपराध नहीं देखे,उनकी जाति या कुल का बिचार नहीं किया। भगवान् केवल भाव की अनन्यता देखते हैं। "

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

माँ सरस्वती पूजा



या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥2॥



जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥

शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥
आप सभी को माँ सरस्वती पूजा की हार्दिक शुभकामनायें।