शनिवार, 20 मई 2017

आतंकवादी

आतंकवादी
वे सब भी
हमारी ही तरह थे,
अलग से कुछ भी नहीं
कुदरती तौर पर

पर, रात अँधेरी थी
और, अँधेरे में पूछी गईं उनकी पहचानें
जो उन्हें बतानी थीं
और, बताना उन्हें वही था जो उन्होंने सुना था
क्योंकि देखा और दिखाया तो जा नहीं सकता था कुछ भी
अँधेरे में
और, अगर कहीं कुछ दिखाया जाने को था भी
तो उसके लिए भी लाज़िम था कि
बत्तियाँ गुल कर दी जाएँ

तो, आवाज़ें ही पहचान बनीं-
आवाज़ें ही उनके अपने-अपने धर्म,
अँधेरे में और काली आकारों वाली आवाज़ें
हवा भी उनके लिए आवाज़ थी, कोई छुअन नहीं
कि रोओं में सिहरन व्यापे ।
वो सिर्फ़ कान में सरसराती रही
और उन्हें लगा कि उन्हें ही तय करना है-
दुनिया में क्या पाक है, क्या नापाक


गोकि उन्हें पता था, किसी धर्म वग़ैरह की
कोई ज़रूरत नहीं है उन्हें अपने लिए
पर धर्म थे, कि हरेक को उनमें से
किसी न किसी की ज़रूरत थी
और यों, धर्म तो ख़ैर उनके काम क्या आता,
वे धर्म के काम आ गए ।

धर्म जो भी मिला उन्हें एक क़िताब की तरह मिला-
क़िताब एक कमरे की तरह,
जिसमें टहलते रहे वे आस्था और ऊब के बीच
कमरा-- खिड़कियाँ जिसमें थीं ही नहीं
कि कोई रोशनी आ सके या हवा
कहीं बाहर से
बस, एक दरवाज़ा था,
वह भी जो कुछ हथियारख़ानों की तरफ़ खुलता था
कुछ ख़ज़ानों की तरफ़

और इस तरह
जो भी कुछ उनके हाथ आता- चाहे मौत भी
उसे वे सबाब कहते
और वह जंग- जिसमें सबकी हार ही हार है
जीत किसी की भी नहीं,
उसे वे जेहाद कहते ।

-राजेन्द्र कुमार