शायद वो आती थी अब आना भूल गयी,
न जाने क्यू वो साहिल अपना भूल गई।रास्ता बदल गया वो दूर निकल गई।
माना भूल गयी शायद अपना सपना भूल गई।
इस राह पर मै क्या रहकर किये जा हूँ,
कि खुद इस जख्म पर गुमराह किये जा रहा हूँ।
जिन्दगी के कुछ स्वप्न बना रखे थे हमने यहाँ,
पर "राज" खुद ही खुद को बेकरार किये जा रहा हूँ।
सोच सोच कर खुद जल रहा हूँ मैं यहाँ,
कि ख़ुशी के बदले गम के आँसू बहा रहा हूँ।
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इस राह पर मै क्या रहकर किये जा हूँ,
जवाब देंहटाएंकि खुद इस जख्म पर गुमराह किये जा रहा हूँ।
बहुत खूब ..
ग़ज़ल के माध्यम से बेहतरीन प्रस्तुति.
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