जैसे मूरत को मंदिर में सजा कर रखा ही।
मैंने माना की बहुत दूर हो मुझसे लेकिन,
ते री सूरत को आईने में छुपा रखा है।
इश्क के दर्द को नजदीक से देखा ही नहीं,
सैकड़ो जख्म को साइन में दबा रखा है।
अपनी रुसवाई में थे दोनों बराबर के शरीक,
क्यों इल्जाम मेरे नाम लिखा रखा है।
बुझ गए शहर के दीये ऐ " राज "
मैंने उस शमा को वज्म में जला रखा है।
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बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुतीकरण.
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