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सोमवार, 21 अक्टूबर 2013
सोमवार, 14 अक्टूबर 2013
लौटकर आया नहीं
फूल की बातें सुनाकर वो गया,
किस अदा से वक़्त काँटे बो गया ।
गाँव की ताज़ा हवा में था सफ़र,
शहर आते ही धुएँ में खो गया ।
मौत ने मुझको जगाया था मगर,
ज़िंदगी के फ़लसफ़ों में सो गया ।
मेरा अपना वो सुपरिचित रास्ता,
कुछ तो है जो अब तुम्हारा हो गया ।
पा गया ख़ुदगर्ज़ियों का राजपथ,
रास्ता जो भी सियासत को गया ।
सीख तेरी काम आ जाती मगर,
हाथ से निकला जो अवसर तो गया ।
कौन बतलाए हुआ उस पार क्या,
लौटकर आया नहीं है जो गया ।
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जैसे इक मासूम क़ातिल, पूरी तैयारी के साथ ।
सादर आभार : विनय मिश्र
रविवार, 6 अक्टूबर 2013
इन्सान को इन्सान समझिये
ताकत पे सियासत की ना गुमान कीजिये,
इन्सान हैं इन्सान को इन्सान समझिये।
यूँ पेश आते हो मनो नफरत हो प्यार में,
मीठे बोल न निकले क्यूँ जुबां की कटार से।
खुद जख्मी हो गये हो अपने ही कटार से,
सच न छुपा पाओगे अपने इंकार से।
आँखें भुला के दिल के आईने में झाकिये,
इन्सान हो इन्सान को इन्सान ही समझिये।
कैसी ख़ुशी है आप को ऐसे आतंक से ?
कैसा सकुन बहते हुए खून के रंग से ?
तलवारों खंजरों में क्यूँ किया सिंगार है,
आप भी दुश्मन हैं आपके इस जंग में।
खुद से न सही अपने आप से डरिये,
इन्सान हो इन्सान को इन्सान समझिये।
खुद का शुक्र है आप भी इन्सान हैं,
इंसानियत से न जाने क्यूँ अनजान हैं।
शुक्र कीजिये की खुदा मेहरबान है,
वरना आप कौन ? क्या पहचान है।
सच यही है, अब तो ये जान लीजिये,
इन्सान हो इन्सान को इन्सान समझिये।
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