गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

रौशनी- गज़ल

मसरूफ हुए इतने हम दीप जलाने में,
घर को ही जला बैठे दिवाली मनाने में।
            ये दौर गुजरा है बस उनको मनाने में,
            क्या होगा खुदा अब अगले जमाने में।
मिट्टी के घरौदे वो याद  आज भी आते हैं,
 हम तुम बनाते थे बचपन के जमाने मैं।
            लग जाएगी लगता है अब और कई सदियाँ,
            इस दौर के  इंसा--  को  इन्सान  बनाने  में।
देखा जो तुम्हे मैंने महसूस हुआ यारब,
सदियाँ तो लगी होगी ये शक्ल बनाने में।
            हँस कर मुझे न देखो जज्बात जल न उठे,
            अब  चिंगारी ही काफी है आग लगाने में।
सब तुम पर निछावर  है वस  निछावर  है,
है रौशनी जितनी भी "राज" के खजाने में।





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1 टिप्पणी:

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