फिर दिवाली ला रही है रौशनी ,
मुश्किले बिखरा रही है रौशनी।
कहकहे थोड़े ब्यथाएँ अनतुली,
इस कदर तरसा रही है रौशनी।
पथ प्रदर्शन की प्रथा को तोडकर,
और भी भटका रही है---रौशनी।
रश्मियों का दान लेकर सूर्य से,
चांदनी कहला रही है रौशनी।
चाहते है जो कैद करना सूर्य को,
उन्ही को मसला रही है रौशनी।
सूर्य,दीपक और जुगनु है गवाह,
रौशनी को खा रही है- रौशनी।
दोस्तों तुम से शिकायत क्या करें,
जब हमे फरमा रही है--- रौशनी।
"राज" कालगति किरणों को समझ ले,
अन्यथा ज्वाला बन कर आ रही है रौशनी।
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बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति,धन्यबाद.
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