गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

"हैवानियत का आलम'





चारों तरफ अजीब आलम हादसों में पल रही है जिंदगी,
फूलों  के  शक्ल में अंगारों  पर चल  रही है  जिंदगी.

आदमी  खूंखार  वहसी  हो  गए हैं इस जमाने में,
दूध साँपों को पिलाकर खुद तड़प रही है जिंदगी.

हमारी कौम ने जो बाग सींचे थे अपना लहू देकर,
उन्हीं बाग के कलियों का मसलना देख रही है जिंदगी.

उजड रहे हैं रोज गुलशन अब कोई नजारा न रहा,
तलवारों खंजरों रूपी दरिंदों से लुट रही है जिंदगी.

अब  तो यातनाओं  के अंधेरों में ही होता है सफर,
लुट रही बहन-बेटियाँ असहाय बन गयी है जिंदगी.

हर पल सहमी-सहमी है घर की आबरू बहन-बेटियाँ,
हर तरफ  हैवानियत का आलम नीलम ही रही है जिंदगी.

चुभती है  कविता ग़ज़ल सुनाने का न रहा अब हौसला,
 अब तो इस जंगल राज में कत्लगाह बन गयी है जिन्दगी.

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28 टिप्‍पणियां:

  1. हमारी कौम ने जो बाग सींचे थे अपना लहू देकर,
    उन्हीं बाग के कलियों का मसलना देख रही है जिंदगी...

    देश के हालात को लिखा है ... पता नहीं क्या होता जा रहा है इंसान को ... बस मसलना सीख रहे हैं ...

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  2. कुछ घटनाएँ हमारे देश होती हैं ,जिसकी चुभन यहाँ महसूस होती है।

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  3. अब तो यातनाओं के अंधेरों में ही होता है सफर,
    लूट रही बहन-बेटियाँ असहाय बन गयी है जिंदगी......सही कहा आपने

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  4. सुंदर प्रस्तुति..... बहुत सही कहा आपने स्थिति बहुत ख़राब हो गयी है.

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  5. चुभती है कविता ग़ज़ल सुनाने का न रहा अब हौसला,
    अब तो इस जंगल राज में कत्लगाह बन गयी है जिन्दगी.

    सटीक रचना !!

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  6. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (26-04-2013) के चर्चा मंच 1226 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

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  7. इन शैतानों के बीच हम और आप जैसे इंसान भी हैं. इसलिए जिंदगी से निराश न हों और इसे जिंदादिल होकर जियें...

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  8. समसामयिक पंक्तियाँ..... बहुत उम्दा

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  9. सटीक रचना, हमारी कौम ने जो बाग सींचे थे अपना लहू देकर,
    उन्हीं बाग के कलियों का मसलना देख रही है जिंदगी...

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  10. उजड रहे हैं रोज गुलशन अब कोई नजारा न रहा,
    तलवारों खंजरों रूपी दरिंदों से लूट रही है जिंदगी.-----

    वर्तमान का सच गहन अनुभूति
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

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  11. उजड रहे हैं रोज गुलशन अब कोई नजारा न रहा,
    तलवारों खंजरों रूपी दरिंदों से लूट रही है जिंदगी.

    अब तो यातनाओं के अंधेरों में ही होता है सफर,
    लूट रही बहन-बेटियाँ असहाय बन गयी है जिंदगी.

    कृपया दोनों स्थान पर "लुट "कर लें आज के सामजिक विद्रूप और मनोरोगी बनते समाज का चुभता नोंक दार चित्रण .

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  12. बेहतरीन रचना राजेंद्र जी,दर्द तो हम सभी को होता है।

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  13. हमारी कौम ने जो बाग सींचे थे अपना लहू देकर,
    उन्हीं बाग के कलियों का मसलना देख रही है जिंदगी.

    ...कटु सत्य...आज के हालातों का बहुत सटीक चित्रण...

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  14. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए धन्यवाद!

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  15. हैवानियत तो हद पर कर गयी है,बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल.

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  16. आज के बिगड़ते हालात पर बहुत ही मार्मिक ग़ज़ल.

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  17. उम्दा ग़ज़ल | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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