झूठ सच्चाई का हिस्सा हो गया
इक तरह से ये भी अच्छा हो गया
उस ने इक जादू भरी तक़रीर की
क़ौम का नुक़सान पूरा हो गया
शहर में दो-चार कम्बल बाँट कर
वो समझता है मसीहा हो गया
ये तेरी आवाज़ नम क्यूँ हो गई
ग़म-ज़दा मैं था तुझे क्या हो गया
बे-वफाई आ गई चौपाल तक
गाँव लेकिन शहर जैसा हो गया
सच बहुत सजता था मेरी ज़ात पर
आज ये कपड़ा भी छोटा हो गया
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झूठ में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है
सच को जब चाहो झुठलाया जा सकता है
आभार :शकील जमाली
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बहुत सुंदर :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: पिता
आपकी इस प्रस्तुति को आज की मिर्ज़ा ग़ालिब की 145वीं पुण्यतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....और समसामयिक भी.......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पेश कर शुक्रिया हमारे साथ यहाँ बाटने के लिए राजेंद्र जी .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.....समसामयिक रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.......
जवाब देंहटाएंसच बहुत सजता था मेरी ज़ात पर
जवाब देंहटाएंआज ये कपड़ा भी छोटा हो गया
हर शेर सुन्दर !
बहुत सुन्दर पेश कर शुक्रिया हमारे साथ यहाँ बाटने के लिए राजेंद्र जी
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...!
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