कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ.
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे
हर कोई गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दरमियाँ.
जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ.
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ.
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ.
किसकी आहट पर अंधेरों के क़दम बढ़ते गए
रहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ.
बस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ.
कौन अब इस शहर में किसकी ख़बरगीरी करे
हर कोई गुम इक हुजूमे-बेख़बर के दरमियाँ.
जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ.
एक साअत थी कि सदियों तक सफ़र करती रही
कुछ ज़माने थे कि गुज़रे लम्हे भर के दरमियाँ.
वार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ.
किसकी आहट पर अंधेरों के क़दम बढ़ते गए
रहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ.
बस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.
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इतनी बेहतरीन गजल प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार! आपका प्रयास सराहनीय व प्रशंसनीय है। मखमूर सईदी साहब को मेरे भी श्रद्धा सुमन अर्पित!
जवाब देंहटाएंसादर!
आपका आभार ब्रिजेश जी.
हटाएंबढ़िया है आदरणीय-
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें -
धन्यबाद आदरणीय.
हटाएंitni behtarin gazal hai ki.....shabd nahi kuch kehne kay liye
जवाब देंहटाएंआपका आभार है आदरेया.
हटाएंबहुत प्रभावशाली रचना प्रस्तुत की है आपने, राजेन्द्र जी. धन्यवाद, बधाई.
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है सुरेश जी.
हटाएंbahut sundar :)
जवाब देंहटाएंधन्यबाद मान्यवर.
हटाएं
जवाब देंहटाएंबस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.
बस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ. शुक्रिया राजेन्द्र जी को .शुक्रिया आपकी कीमती टिप्पणियों के लिए .भावांजलि शायर मखमूर साहब को .
आभार आदरणीय.
हटाएंबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंधन्यबाद
हटाएंशायर को श्रद्धा सुमन समर्पित करने का अच्छा मौका दिया आपने इस खूबसूरत गजल के माध्यम से... आभार.
जवाब देंहटाएंआपका आभार मान्यवर.
हटाएंबेहतरीन ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार है आपका.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा पेशकश!
जवाब देंहटाएंसादर नमन शास्त्री जी.
हटाएंbahut achha likha hai
जवाब देंहटाएंshubhkamnayen
आपका आभार
हटाएंबहुत सुन्दर रचना ...आभार पढवाने का !
जवाब देंहटाएंधन्यबाद आदरेया.
हटाएंसुभानाल्लाह ! बहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंबे-मिसाल ग़ज़ल पढ़वाने के लिए शुक्रिया !!
धन्यबाद आदरेया.
हटाएंउम्दा गज़ल पढ़वाने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंआपका आभार महोदय.
हटाएंबहुत ही सुन्दर...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रतिभा जी.
हटाएंबेहतरीन गजल
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है है आदरेया.
हटाएंबहुत उम्दा ग़ज़ल.....
जवाब देंहटाएंआपका आभार महोदया.
हटाएंजगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
जवाब देंहटाएंएक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ.
मख्मूर साहब का आत्मकथ्य बिल्कुल सच प्रतीत होता है
आपका स्वागत है ब्लॉग पर.
हटाएंबस्तियाँ 'मखमूर' यूँ उजड़ी कि सहरा हो गईं
जवाब देंहटाएंफ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ.....बहुत उम्दा
धन्यबाद आदरेया.
हटाएंबहुत सुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंइतनी प्रभावी ग़ज़ल है की बार बार पढ़ने का दिल करता है.
हटाएंबहुत ही बेहतरीन एवं उम्दा ग़ज़ल की प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा नायाब गजल,,,साझा करने के लिए आभार,,,
जवाब देंहटाएंRecentPOST: रंगों के दोहे ,
बहुत उम्दा ग़ज़ल. साझा करने के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंवार वो करते रहेंगे, ज़ख़्म हम खाते रहें
जवाब देंहटाएंहै यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ...
उम्दा शेर है ... जीवन की सचाइयां बयाँ करता हुआ ...
लाजवाब गज़ल ..
राजेंद्रकुमार जी मखमूर सईदी जी की उत्कृष्ट गजल पहुंचाने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआज कल शहरीकरण बढ रहा है और बंद दरवाजों तथा दीवारों के पीछे मानवीयता गूम हो गई है। चंद शद्बों में शायर ने भावों को पिरोया है।
किसकी आहट पर अंधेरों के क़दम बढ़ते गए
जवाब देंहटाएंरहनुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ.
बहुत खूब! बेहतरीन ग़ज़ल...
यही तो इब्तदा और इन्तहां है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुत किया है आपने. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंइसी गज़ल के ये दो शेर ओर ....
जवाब देंहटाएंक्या कहें हर देखने वाले को आख़िर चुप लगी
गुम था मंजर इख्तिलाफाते-नज़र के दरमियाँ.
कुछ अँधेरा सा, उजालों से गले मिलता हुआ
हमने एक मंज़र बनाया खैरो-शर के दरमियाँ.
हर एक को इस शायर से महोब्बत हो जाती है, जब कोई शेर इनके पढता हैं
सब से झुककर मिलना अपनी आदत है
कद अपना हम सब के बराबर रखते हैं.
सहरा-सहरा सरगरदां है ऐ 'मख्मूर'
हम भी बगुलों जैसा मुक़द्दर रखते हैं।