रविवार, 14 अप्रैल 2013

कुछ यादगार



याद नहीं क्या क्या देखा था, सारे मंज़र भूल गये

उसकी गलियों से जब लौटे, अपना भी घर भूल गये

खूब गये परदेस कि अपने दीवारो-दर भूल गये

शीशमहल ने ऐसा घेरा, मिट्टी के घर भूल गये

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रात यूं दिल में तेरी खोई हुई याद आई

जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए

जैसे सहाराओं में हौले से चले बादे-नसीम

जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए


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लायी हयात आये कज़ा ले चली चले

ना अपनी ख़ुशी आये ना अपनी ख़ुशी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ

तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बदकिमार
जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले

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28 टिप्‍पणियां:

  1. परदेश की कैफियत का खूब नक्षा खिंचा है। बहुत खूब।

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  2. बेहद सुन्दर रचना राजेंद्र जी,शुभकामनाओं सहित आभार।

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  3. behatareen ,ki chithhi aayee hai ghar ki yad satayee hai aankhe bhi bhar aayee hai yah kaisi tanhayee hai vah kya khoob

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  4. जैसे बीमार को बेवजह करार आ जा
    ya आ जाए ?
    sabhi sundar !

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  5. बहुत सुन्दर भावाभ्यक्ति करते हुए मुक्तक! प्रथम ने तो हृदयातल को छू लिया!
    सादर बधाई स्वीकारें।

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  6. बेहद खूबसूरत प्रस्तुति.
    नवरात्रि और नवसंवत्सर की अनेकानेक शुभकामनाएँ.

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  7. सुंदर उत्कृष्ट प्रस्तुति

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    नवरात्रों की बधाई स्वीकार कीजिए।

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  9. बेहतरीन प्रस्तुति,बधाइयाँ.

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  10. क्या बात है जनाब,दिल बाग बाग हो गया.

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  11. बहुत ही सुन्दर यादगार है भाई

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  12. सुन्दर प्रस्तुति -
    शुभकामनायें आदरणीय ||

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  13. सुन्दर और सार्थक शेर,शुक्रिया.

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  14. वह क्या बात है,बहुत ही सुन्दर शेर.

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  15. दिल से निकली आवाज,बहुत ही सुन्दर.

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  16. आहा,बहुत ही सुन्दर असरार,बेहतरीन.

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  17. बहुत खूब.........जैसे बीमार को बेवजह करार आए।

    आपसे अनुरोध कि मैटर के बैकग्राउंड में आंखों को फेवर करनेवाले कलर लगाएं। आपकी पोस्‍ट पढ़ते-पढ़ते मुझ जैसे चश्‍माधारकों को तेज रंग से दिक्‍कत होने लगती है।

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  18. आपका आभार.मेरे ख्याल से शायद १७.०४.२०१२ को.

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  19. बहुतखूब भाई!! बहुत सुन्दर रचना | आभार

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  20. बहुत बढ़िया जी .......उसकी गलियों से जब लौटे अपना भी घर भूल गए

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  21. ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी हैं बहुत
    हर एक तराशे हुए बुत को देवता न कहो

    अब फिरते हैं हम रिश्तों के रंग-बिरंगे ज़ख्म लिये
    सबसे हँस कर मिलना-जुलना बहुत बड़ी बीमारी है
    वाह खूबसूरत ग़ज़ल

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आपकी मार्गदर्शन की आवश्यकता है,आपकी टिप्पणियाँ उत्साहवर्धन करती है, आपके कुछ शब्द रचनाकार के लिए अनमोल होते हैं,...आभार !!!